Sunday, September 10, 2017 9:03 PM

Ikhi prithvi ma ikhi janam ma



नरेन्द्र सिंह नेगी जी द्वारा गाये बहुत से गाने ऐसे है जिनमें उपमायें, भाव पूरी तरह से नये तरीके हैं। कुछ गाने आप पहले भी सुन चुके हैं जैसे रोग पुराणु कटे ज़िन्दगी नई ह्वैगे, तेरु मुल – मुल हैंसुणु दवाई ह्वैगे या फिर त्यारा रूप कि झौल मां, नौंणी सी ज्यू म्यारु । आज प्रस्तुत है इसी तरह का एक और गाना। इसका भावार्थ करना कफी कठिन है। इसलिये हम इसके भावार्थ के साथ साथ इसका पद्यानुवाद भी दे रहे हैं। इस गाने में प्रेमी एक सुन्दरी को देख कर यह समझ नहीं पा रहा है कि उसने उसने सुन्दरी को कहाँ देखा है, स्वपन में या फिर यह मात्र उसका भ्रम है। उस सुन्दरी को देख उसके मन में जिस तरह के भाव आते हैं उन्ही को नये तरीके के उपमानों द्वारा व्यक्त किया गया है।
भावार्थ : इस ही पृथ्वी में, इस ही जनम में कहीं तो देखा है उस सुन्दरी को, वह सुन्दरी जो अब मन में बस चुकी है। मेरी यह समझ में नहीं आ रहा है कि उसे किसी सपने में देखा था या फिर यह कोई भ्रम है।
वह पराये की क्यारी से चोरी की गई ककड़ी जैसी है, उधार में मिली पकोड़ी जैसी स्वादिष्ट है वो। कांटों के बीच छुपे हिसालू फल के गुच्छे सी, पिंडालू (अरबी) के पत्ते पर चमकती पानी की बूंद सी, उसे मैने अखिर देखा कहाँ, किसी सपने में देखा था या फिर यह कोई भ्रम है।
किसी देवाने बुढ़े द्वारा देखे गये शादी के दिवा स्वप्न जैसी, गरमी की धूप में किसी झरने के शीतल जल की तरह है वो। काले बादलों के बीच चमकती चांदनी की तरह, दाता के मुंह को ताकते किसी भिखारी की नजर की तरह, उसे मैने अखिर देखा कहाँ, किसी सपने में देखा था या फिर यह कोई भ्रम है।
सरदियों के दिनों में गुनगुनी धूप जैसी है वो, किसी बच्चे मन में दूध-भात के लिये उठती आतुरता जैसी है वो। मिर्च से भरे खाने बाद मिली खीर जैसी मीठी, परदेश में मिलने वाली घर की चिट्ठी जैसी, उसे मैने अखिर देखा कहाँ, किसी सपने में देखा था या फिर यह कोई भ्रम है।
शादी बारात में सालियों द्वारा दी गयी गाली जैसी, नाती पोतों को मिलने वाली दादी की ’झप्पी’ जैसी है वो। भूखे के आगे भोजन से भरी थाली जैसी, आंगन के कोने पर आती नारंगी की डाली जैसी, उसे मैने अखिर देखा कहाँ, किसी सपने में देखा था या फिर यह कोई भ्रम है।
सोने जैसे सुन्दर गले में मोतियों की माला जैसी सुन्दर, पानी भरे बर्तन में चांद की परछाई जैसी सुन्दर, घनी अंधेरी रात में मशाल के प्रकाश जैसी, अंधेरे मन में आशा के उजाले जैसी, उसे मैने अखिर देखा कहाँ, किसी सपने में देखा था या फिर यह कोई भ्रम है।
गीत के बोल देवनागिरी में
इखि ई पिरथिमा ये हि जलम मां, इखि ई पिरथिमा ये हि जलम मां
देखि त छैं च कख देखि होलि,
रुपसि बांद ज्वा बसिगे मन मां, रुपसि बांद ज्वा बसिगे मन मां
देखि त छैं च कख देखि होलि- कख देखि होलि ..
सुपिन्यु ह्वै होलू, कि बैम रै होलू ? सुपिन्यु ह्वै होलू, कि बैम रै होलू ?
इखि ई पिरथिमा ये हि जलम मां, देखि त छैं च कख देखि होलि
रुपसि बांद ज्वा बसिगे मन मां,
देखि त छैं च कख देखि होलि – कख देखि होलि ..
सुपिन्यु ह्वै होलू, कि बैम रै होलू ?
सुपिन्यु ह्वै होलू, कि बैम रै होलू ?
चोरी काखड़ि, बिरानि सगोड़ीकि सी – छै वा , चोरी काखड़ि, बिरानि सगोड़ीकि सी – छै वा
सवादि येनि कि पैणेकि पकोड़ि सी – छै वा
काड़ों का बोटूमा हिंसारे गुन्दसि, पिंडाळू पातुमा उंसिकी बुन्दसि – कख देखि होलि
सुपिन्यु ह्वै होलू, कि बैम रै होलू ? सुपिन्यु ह्वै होलू, कि बैम रै होलू ?
दाना दिवाना कि ब्योवाकि गांणि सी – छै वा , दाना दिवाना कि ब्योवाकि गांणि सी – छै वा
रुड़्यूं का घामूमा छोय्याको पांणि सी छै वा
बादळु बीचमा जूनी झलक्क सी, दाता का मुक्क मा मंगत्याकि टक्क सी – कख देखि होलि
सुपिन्यु ह्वै होलू, कि बैम रै होलू ? सुपिन्यु ह्वै होलू , कि बैम रै होलू ?
ह्यूंदि का दिनूमां घामै निवात्ति सी – छै वा , ह्यूंदि का दिनूमां घामै निवात्ति सी – छै वा
बाला का मनैकि स्यांणि दुद भात्ति सी – छै वा
मरच्यांणा खाणामा खीर जन मिट्ठि सी , दूर परदेस मा घोरैकि चिट्ठी सी – कख देखि होलि
सुपिन्यु ह्वै होलू, कि बैम रै होलू ? सुपिन्यु ह्वै होलू, कि बैम रै होलू ?
ब्यो बर्यात्युं मां स्याळि सी गाळि सी – छै वा , ब्यो बर्यात्युं मां स्याळि सी गाळि सी – छै वा
नाति नत्येणों पर दादी अंग्वालि सी – छै वा
भूखा का अगाड़ी भोजने थालि सी, चौका तिराळि नारंगि डालि सी – कख देखि होलि
सुपिन्यु ह्वै होलू, कि बैम रै होलू ? सुपिन्यु ह्वै होलू, कि बैम रै होलू ?
सूनैकि गौलिमा मोत्युंकि माला सी – छै वा , सूनैकि गौलिमा मोत्युंकि माला सी – छै वा
पांणिकि तौलिमा जूनि सौंडल्या सी – छै वा
औंसिकि घनाघोर राति मुछ्यालि सी – अंधेरा मन मां आसै उज्यालि सी – कख देखि होलि
सुपिन्यु ह्वै होलू, कि बैम रै होलू ? सुपिन्यु ह्वै होलू, कि बैम रै होलू ?
इखि ई पिरथिमा ये हि जलम मां, देखि त छैं च कख देखि होलि
रुपसि बांद ज्वा बसिगे मन मां, देखि त छैं च कख देखि होलि – कख देखि होलि ..
सुपिन्यु ह्वै होलू, कि बैम रै होलू ? सुपिन्यु ह्वै होलू, कि बैम रै होलू ?
सुपिन्यु ह्वै होलू, कि बैम रै होलू ? सुपिन्यु ह्वै होलू, कि बैम रै होलू ?
गीत का पद्यानुवाद
इसी धरती पर इसी जनम में, देखा तो है पर देखा कहाँ
रूपसी जो बसी है मन में, देखा तो है पर देखा कहाँ, देखा कहाँ
स्वप्न है ये, या है ये वहम….
पराये के घर से चोरी ककड़ी सी है वो, भूखे को दान में मिली पकौड़ी सी है वो,
काटे भरे पेड़ में हिसालू की फून्द, पिंडालू के पात में ओस की बूँद
स्वप्न है ये, या है ये वहम….
दीवाने बूढ़े  के शादी के सपने सी है वो, गरमी की धूप में ठंडे पानी सी है वो,
काले बादल में चांदनी की झलक, दाता को तकते भिखारी की ललक
स्वप्न है ये, या है ये वहम….
सरदी के महीने की गुनगुनी धूप सी है वो, दूध की बच्चे को लगी भूख सी है वो,
मिर्च खाने के बाद मिली खीर जैसी, परदेश में राँझा को मिली हीर जैसी
स्वप्न है ये, या है ये वहम….
शादी में साली की प्यारी गाली सी है वो, दादी की गोद में मिली खुशहाली सी है वो,
भूखे के आगे ज्यों भोजन की थाली,  आँगन की कोने में नाँरगी की डाली
स्वप्न है ये, या है ये वहम….
सोने से गले में मोती की माला सी है वो, पानी के बर्तन में चांद की छ्टा सी है वो,
घने अंधकार में जलती मशाल सी, अंधेरे मन में आस के उजाले सी
स्वप्न है ये, या है ये वहम…
इसी धरती पर इसी जनम में, देखा तो है पर देखा कहाँ
रूपसी जो बसी है मन में, देखा तो है पर देखा कहाँ, देखा कहाँ
स्वप्न है ये, या है ये वहम…..

Ghuguti ghuron lagi



उत्तराखण्ड का लोकसंगीत न्यौली और खुदैड़ जैसे विरह गीतों से भरा पड़ा है। इन गीतों का अधिकांश भाग विवाहित महिलाओं पर आधारित है जो विकट ससुराल के कष्टपूर्ण जीवन को कोसते हुए मायके के दिन याद करती हैं। पहाड़ के गांवों में महिलाओं का जीवन अत्यंत संघर्षशील और कष्टप्रद है। दिनभर खेत-खलिहान-जंगल, मवेशियों और घर-परिवार की जिम्मेदारी अपने कंधों पर संभालने वाली मेहनतकश, मजबूत नारी को सामान्यत: इतना अवकाश भी नहीं मिल पाता कि वह अपने मायके को याद कर पाये। लेकिन जैसे ही चैत (चैत्र) का महीना लगता है एक जंगली पक्षी "घुघूती" की उदासी भरी आवाज सुनकर महिलाओं को बरबस अपने मायके की याद आ जाती है। ससुराल में रहते हुए वह अनुमान लगाती है कि इस समय उसके मायके के कैसे हाल-चाल होंगे।
यह एक बहुत पुराना लोकगीत है जिसे काफी पहले नरेन्द्र सिंह नेगी जी अपनी एक ओडियो कैसेट में गाया था। यहाँ हम उस पुराने ऑडियो को और नये वीडियो वाले गीत दोनों को प्रस्तुत कर रहे हैं। इसका वीडियो नेगी जी के "चलि भै मोटर चली" वीडियो एलबम में मीना राणा की आवाज में गाये गये गाने को लेकर फिल्माया गया है।
भावार्थ - फिर से चैत का महीना लौट आया है और मेरे मायके की घुघुती अपनी उदासी भरी आवाज में "घुंराणे" (आवाज करने) लगी है। मेरे मायके के सामने दिखने वाले पहाड़ों की बर्फ अब शायद पिघलने लगी होगी और जंगल पुन: पल्लवित होने लगे होंगे। नवजात पक्षी अब अपने घोंसलों से निकलकर उड़ने लगे होंगे, जंगलों में सुन्दर लाल बुरांश के फूल खिलने लगे होंगे। फूल और पत्तियां लेकर गांव के बच्चे सभी घरों की देहरियों पर जाकर पूजन कर रहे होंगे। [फूलदेई पर्व में देहरियाँ पूजी जाती हैं] और मेरे सौभाग्यशाली सहेलियां मिलकर उत्साह और उमंग से भरे थड़्या और चौंफुला नृत्यों  में मग्न होंगी। मेरे मायके वाले घर की चौखट पर बैठे मेरे पिताजी उदास बैठे होंगे और मेरी बीमार माँ मेरी राह देखती होगी। मेरे मायके की तरफ़ से आने वाला कोई आदमी मेरे भाई-बहनों की राजी-खुशी की खबर ले आता तो कुछ तसल्ली मिलती।
गीत के बोल देवनागिरी में
[ मीना राणा द्वारा गाये गीत में कुछ शब्दों का उच्चारण भिन्न है जैसे उसमें ‘म्यारा’ की जगह ‘मेरा’, ‘बौण’ की जगह ‘बण’ व ‘ह्वाला’ की जगह ‘होला’ गाया गया है।]
घुघूती घुरूंण लगी म्यारा मैत की, बौड़ी-बौड़ी ऐगै ऋतु,ऋतु चैत की
घुघूती घुरूंण लगी म्यारा मैत की, बौड़ी-बौड़ी ऐगै ऋतु,ऋतु चैत की, ऋतु,ऋतु चैत की
डांणी कांठ्यूं को ह्यूं, गौली गै होलो, म्यारा मैता को बौण, मौली गै होलो
डांणी कांठ्यूं को ह्यूं, गौली गै होलो, म्यारा मैता को बौण, मौली गै होलो
चाकुला घोलू छोड़ि उड़णा ह्वाला, चाकुला घोलू छोड़ी उड़णा ह्वाला
बैठुला मेतुड़ा कु, पैटणा ह्वाला
घुघूती घुरूंण लगी हो… .
घुघूती घुरूंण लगी म्यारा मैत की बौड़ी-बौड़ी ऐगै ऋतु,ऋतु चैत की, ऋतु, ऋतु चैत की
डाण्यूं खिलणा होला बुरसी का फूल, पाख्यूं हैंसणी होली फ्योली मुल-मुल
डाण्यूं खिलणा होला बुरसी का फूल, पाख्यूं हैंसणी होली फ्योली मुल-मुल
कुलारी फुल-पाति लैकि दैल्यूं- दैल्यूं जाला, कुलारी फुल-पाति लेकी, दैल्यूं- दैल्यूं जाला
दगड़्या भग्यान थड़या-चौंफला लगाला
घुघूती घुरूंण लगी हो…
घुघूती घुरूंण लगी म्यारा मैत की बौड़ी-बौड़ी ऐगै ऋतु,ऋतु चैत की, ऋतु, ऋतु चैत की
तिबरि मां बैठ्या ह्वाला बाबाजी उदास, बाटु हैनी होली मांजी लागी होली सास
तिबरि मां बैठ्या ह्वाला बाबाजी उदास, बाटु हैनी होली मांजी लागी होली सास
कब म्यारा मैती औजी दिसा भैटि आला, कब म्यारा मैती औजी, दिसा भैटि आला
कब म्यारा भै-बैंणों की राजि-खुशि ल्याला
घुघूती घुरूंण लगी हो…
घुघूती घुरूंण लगी म्यारा मैत की बौड़ी-बौड़ी ऐगै ऋतु ,ऋतु चैत की, ऋतु, ऋतु चैत की
ऋतु, ऋतु चैत की, ऋतु, ऋतु चैत की ऋतु, ऋतु चैत की ऋतु, ऋतु चैत की...
Note:- चैत महीना व भिटौली अल्मोड़ा में लोग अपनी कुंवारी कन्याओं को भी भिटोली देते हैं जिसमें वे लोग पूरी, सै (चावल का व्यंजन), मिठाई, कपडे और रुपये आदि अपनी लड़कियों को देते हैं तथा मोहल्ले की लड़कियों को पूरी, सै ,मिठाई और रुपये देते हैं.इस प्रकार यह भिटोली पूरे मोहल्ले में बांटी जाती है, लेकिन जिन घरों में लड़कियाँ नहीं होती हैं,वहाँ रुपये को छोड़ कर केवल पकवान दिए जाते हैं.

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